पीठ ने स्पष्ट करते हुए कहा कि कोई बिल राज्यपाल के पास आता है, तो उनके पास तीन विकल्प होते हैं: विधेयक को सहमति देना. सहमति रोकना. राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना.

SUPREME COURT OF INDIA : सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. राज्यपाल और चुनी हुई सरकार के बीच टकराव पर कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों के लिए कोई सख्त समय-सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती. मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कड़ी चेतावनी दी कि राज्यपाल किसी भी बिल पर अनिश्चितकाल तक बैठे नहीं रह सकते. चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पीठ ने फैसला सुनाया.
राष्ट्रपति के रिफरेन्स पर दिया फैसला : राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए एक संदर्भ पर फैसला सुनाया गया जहाँ पर तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में दो जजों की बेंच के उस फैसले के बाद राष्ट्रपति द्वारा मांगा गया था, जिसने प्रभावी रूप से राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए बिल पास करने की समय-सीमा तय कर दी थी.
किन बिन्दुओ पर कोर्ट ने कहा : कोर्ट ने कहा कि समय-सीमा चूक जाने पर कोर्ट द्वारा बिल को “स्वतः पारित” मान लेने की अवधारणा गलत है व कहा कि केवल समय-सीमा के उल्लंघन के आधार पर न्यायपालिका किसी बिल को पास घोषित कर देती है, तो यह राज्यपाल को संविधान द्वारा सौंपे गए कार्यों को अपने हाथ में लेने जैसा होगा. फिलहाल के लिए कोर्ट ने राज्यपाल की मंजूरी के लिए कोई घड़ी तय करने से तो इनकार कर दिया. साथ ही कोर्ट यह भी कहती हैं कि राज्यपाल की ओर से लंबी या बिना कारण बताए देरी होती है, जिससे विधायी प्रक्रिया रुक जाती है, तो संवैधानिक अदालतें असहाय नहीं हैं. ऐसी स्थिति में, कोर्ट अपनी “सीमित न्यायिक समीक्षा शक्ति” का उपयोग करते हुए राज्यपाल को एक निश्चित समय सीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दे सकता है. हालांकि, पीठ ने साफ किया कि यह हस्तक्षेप केवल देरी तक सीमित होगा और बिल के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं की जाएगी.
पीठ ने स्पष्ट करते हुए कहा कि कोई बिल राज्यपाल के पास आता है, तो उनके पास तीन विकल्प होते हैं: विधेयक को सहमति देना. सहमति रोकना. राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना.
सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणी : सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सहमति रोकना अनुच्छेद 200 के पहले प्रोवाइजो से अलग नहीं है. यह प्रोवाइजो अनिवार्य करता है कि बिल को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजा जाए. संविधान पीठ कहती हैं कि प्रोवाइजो कोई चौथा विकल्प नहीं है, बल्कि यह सहमति रोकने की शक्ति की एक शर्त है. इसलिए, यदि राज्यपाल सहमति नहीं देने का निर्णय लेते हैं, तो वे संवैधानिक रूप से बिल को सदन को वापस भेजने के लिए बाध्य हैं. कोर्ट ने चेतावनी दी कि बिल को वापस भेजे बिना सहमति रोकना देश के संघीय ढांचे को कमजोर करेगा.
क्यों छिड़ी बहस: हालही में सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल केस के फैसले में इसकी झलक सी दिखायी पड़ती हैं. जिसमें अदालत ने कहा था कि राज्यपाल ने राज्य सरकार के 10 जरूरी बिलों को रोके रखा, यह अवैध और असंवैधानिक है. जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने राज्यपालों के अधिकार की सीमा तय कर दी थी और कहा बिल रोकना मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं. राज्यपाल को राज्य की विधानसभा को मदद और सलाह देनी चाहिए थी. बेंच ने यह भी कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है. इसी मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के लिए बिल पर काम करने की टाइमलाइन तय करते हुए कहा कि विधानसभा से पास बिल पर राज्यपाल तीन महीने के भीतर कदम उठाएं. राज्यपालों को निर्देश दिया कि उन्हें अपने विकल्पों का इस्तेमाल तय समय-सीमा में करना होगा. वरना उनके उठाए गए कदमों की कानूनी समीक्षा की जाएगी. कोर्ट कहती हैं कि राज्यपाल बिल रोकें या राष्ट्रपति के पास भेजें. उन्हें यह काम मंत्रिपरिषद की सलाह से एक महीने के अंदर करना होगा. विधानसभा बिल को दोबारा पास कर भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी. जिसके बाद ही राष्ट्रपति ने
राष्ट्रपति के 14 सवालों पर बहस : राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 (1) के तहत 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट को भेजे थे. इनमें प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक निर्णय टाल सकते हैं और क्या अदालतें इसके लिए समय सीमा तय कर सकती हैं. जिसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दिया फैसला.



