2029 के लोकसभा चुनाव से पहलें नज़र एक बार बिहार चुनाव पर बड़ी ही दिलचस्प हो चली हैं, एक ओर एनडीए तो दूसरी तरफ महागठबंधन में सत्ता को लेकर खीचातानी एक बार फिर दिखायी देनी लगी हैं कोई स्वर्ण जाति तो कोई यादव समाज पर अपना हित साधता नज़र आने लगा हैं। अब हम बिहार की राजनीति के साथ जातियों के गणित को समझतें हुए आगें बढ़तें चलेंगे।
27 प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रखनें वाला OBC समाज बिहार राजनीति की शुरूआत करता तो वहीं अत्यन्त पिछड़ा वर्ग इस राज्य में 36 प्रतिशत से ज्यादा अपनी भागीदारी दिखायी देता नज़र आता हैं। वहीं स्वर्ण समाज की तरफ बढ़ने पर यह भागीदारी 15 प्रतिशत से ज्यादा तो वहीं SC समाज 19 प्रतिशत तो ST समाज 1 प्रतिशत से ज्यादा ही दिखायी देती हैं। इसी बीच कोई राजनैतिक पार्टी OBC समाज पर अपना हित साधती दिखायी देती तो किसी को 19 प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रखने वाली SC समाज से प्यार झलकता दिखायी देता नज़र आता हैं। इसी बीच समझने वाली बात यह होगी कि सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाली बीजेपी क्या एक बार फिर हिन्दुत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ने वाली हैं? या रोज़गार रहने वाला हैं इन पार्टियों के मुद्दों में।
क्या BJP साधेगी हिन्दुत्व का मुद्दा : अगर बिहार चुनाव में एक बार फिर हिन्दुत्व कार्ड का सहारा लिया जाने वाला हैं तो 81 प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रखने वाला यह समाज एक बार फिर बिहार की राजनीति में बिना किसी बदलाव के NDA की सत्ता को बरकरार रखने वाला हैं। पर देखने वाली बात यह भी होने वाली हैं कि अगर यह कार्ड खेला भी जाता हैं तो सरकार बनाने का दावा करने वाली महागठबंधन किन रास्तों पर आगें चलकर आगे बढ़ने वाली हैं।
जातियों पर नज़र : सबसे पहले कुछ महत्वपूर्ण जातियों पर नज़र डालते हुए आगे बढ़ते हैं। बिहार में जहां यादव समाज 14.26 प्रतिशत, दुसाध 5.31 प्रतिशत, रविदास 5.2 प्रतिशत, कोइरी 4.2 प्रतिशत, ब्राहमण 3.65, राजपूत 3.45, मुसहर 3.08, कुर्मी 2.87 प्रतिशत, भूमिहार 2.86 प्रतिशत का वज़न रखने वाले समाज किसी भी राजनीतिक पार्टी से अछूते नज़र नहीं आते, बिहार की राजनीति में एक मज़बूत भूमिका निभाने वाली लालू की RJD एक बार फिर MY यानी मुस्लिम व यादव की जोड़ी साथ लेने का फैसला तो वहीं इनकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस 15.32 प्रतिशत की भागीदारी रखने वाले मुख्य रूप से स्वर्ण समाज के साथ अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग पर नज़र गड़ाये बैठी नज़र आती हैं। वहीं अगर सत्ता पर काबिज़ रहने वाली नितीश कुमार की पार्टी JDU की बात करें तो वह एक बार फिर OBC व EBC पर अपनी नज़र गडायें RJD को अपनी मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में देखती हैं। वहीं BJP की बात करें तो वह एक बार फिर सबका साथ सबका विकास के नारे को आगे बढ़ाते हुए अगड़े व पिछड़ वर्ग को बैलेंस करने की कोशिश करती हुयी दिखायी पड़ती हैं। लेकिन फिर वहीं सवाल जातियों को साधनें में जुटी सभी राजनीतिक पार्टियां जनता के मुद्दे को कहीं खो सी देती हैं। सवाल यह नहीं किस जाति ने किस पार्टी को कितना वोट दिया। सवाल यह कि दशकों तक राज करने वाली यह राजनीतिक पार्टियों ने शिक्षा व रोज़गार के लिए कितना काम किया। जातिवाद की इस लड़ायी में एक बार फिर जनता के मुद्दे कहीं खोये से मालूम पड़तें हैं। फिलहाल किस पार्टी का राज़ और इस पर आखरी फैसला भी जनत का ही होना चाहिए।
क्या प्रशांत किशोर की जन सुराज निभाएगी निर्णायक भूमिका : बिहार की राजनीति में आज शोर एक नये पार्टी धारक प्रशांत किशोर का भी हैं। पूर्व राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में पहचाने जाने वाले किशोर बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका में नज़र आते दिखायी देते हैं। अब सवाल यह कि पूरी मज़बूती के साथ कूद चुकी प्रशांत किशोर की नयी नवेली पार्टी जन सुराज क्या किसी निर्णायक भूमिका में नज़र आने वाली हैं। हालाकि जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी के नारे के साथ उतरी पार्टी सीट पर जातिगत भागीदारी को अपने टिकट का आधार बनाने में किसी भी तरह का संकोच करती नही दिखायी दे रही हैं। लोकसभा में एक बड़ी भागीदारी देने वाली बिहार की जनता की शिक्षा व रोज़गार कहीं गुम से नज़र आते तो वहीं बिहार की राजनीति ने एक नयी पार्टी की आहट कही न कहीं एक नये विकल्प की ओर जनता का इशारा देती दिखायी देती नज़र आती हैं। फिर भी चाहें दशकों तक राज करने वाली एनडीए हो या फिर सत्ता की लालसा लिए बैठी कांग्रेस समेत महागठबंधन हो या फिर नयी नवेली पार्टी के बिहार में दस्तक देने वाली जन सुराज हो हर पार्टी अपनी पूरी ताकत झोकने में किसी से संकोच करती नही दिखायी देती।
क्या मुस्लिम समाज केवल एनडीए के विरूद्ध : एक सवाल और आखिर मुस्लिम वोटर का वारिस कौन? क्या महागठबंधन केवल एनडीए का डर दिखाकर इन वोटर पर सेंध लगाने की जुगत में? पर कहीं महागठबंधन भी इन वोटर्स को अपना फ्री वोटर्स तो नहीं मान चुका? चलिए आगे बढ़ते हैं और समझते हैं कुछ इन्हीं समीकरण को। बिहार की राजनीति में 17 प्रतिशत से ज्यादा आबादी रखने वाला मुस्लिम समाज जो 50 से ज्यादा सीटों को प्रभावित कर सकता हैं। क्या उनकी अहमियत केवल संख्या बल तक सीमित दिखायी देती हैं? क्या RJD की अगुवाई वाला महागठबंधन भी इस बात को लेकर अस्वस्त हैं कि इन वोट्स पर पहली दावेदारी उनकी ही हैं? चलिए थोड़ा पीछे की ओर चलते हैं और समझेंगे कुछ इन्हीं बातों को, 2020 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज के वोटों पर एक बड़ी सेंध लगाने वाली AIMIM को नज़रअन्दाज़ करना महागठबंधन को एक नये सवाल की ओर इशारा करता हैं। 17 प्रतिशत की दावेदारी करने वाला यह समाज क्या एक तरफा वोट करने वाला हैं या फिर 17 में से 10 प्रतिशत पर काबिज़ होने वाला पसमांदा समाज की पहली पसंद NDA होने वाली हैं। कुछ सवाल आपके लिए भी क्या मुस्लिम समाज की हैसियत केवल वोट तक सीमित? आज़ादी के बाद इस समाज की क्या हैं विकास दर? क्या हैं इस समाज में रोज़गार की स्थिति? क्यों हैं इस समाज में शिक्षा एक कमज़ोर कड़ी? क्या सभी राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य केवल वोट पर सेंध लगाना मात्र तक सीमित? इन सभी सवालों का जवाब केवल और केवल हमारी जनता के पास ही मौजूद।
किस भूमिका में AIMIM : महागठबंधन में शामिल होने की इच्छा कई बार जाहिर करने वाली AIMIM को महागठबंधन की तरफ से एक बार फिर निराशा का मुंह देखना पड़ा है। मुस्लिम समाज पर दावा करने वाली AIMIM आखिर अपने आपको किस भूमिका में देखती हैं? फिलहाल बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार एनडीए (NDA) और महागठबंधन के अलावा अब थर्ड फ्रंट की कोशिश तेज हो चुकी है। महागठबंधन से भाव न मिलने से अब ओवैसी दूसरी छोटी पार्टियों को साथ लाने की कोशिश में लगे हुए नज़र आते दिखायी देते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं महागठबंधन भी मुस्लिम वोटर से कोई भी समझौता नहीं चाहता? हालाकि इसमें कोई शक नहीं कि AIMIM लगभग 100 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली हैं। फिलहाल AIMIM की बढ़त का सीधा असर RJD पर तो दिखायी देता नज़र आता हैं। अगर पिछले चुनाव की ओर चलें तो RJD का सबसे कमजोर प्रदर्शन सीमांचल में ही रहा था और यहां ओवैसी की पार्टी ने वोट को काटकर चुनाव को प्रभावित भी किया था। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में 20 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली AIMIM ने 5 सीट पर कब्ज़ा जमाया था। हालांकि, जीतने के बाद उनके 4 विधायक RJD में ही शामिल हो चले थें। चलिए आगे बढ़ते हैं और समझते मुस्लिम समीकरण को सीमांचल में अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया में मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी के करीब मानी जाती है। आम तौर पर मुस्लिम वोट RJD के पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है, लेकिन पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी भी इस वर्ग को आकर्षित करने में सफल रही थी। इससे वोटों का पारंपरिक समीकरण बदल सा गया है और इसी बात का डर अब RJD को सताने लगा हैं कि कहीं मुस्लिम वोटर AIMIM को पहचानने तो नहीं लगें।



