पासवान वोटरों की जनसंख्या 5.31% है। जिस पर चिराग पासवान की मजबूत पकड़ मानी जाती है। लिहाजा पशुपति पारस को अपने गठबंधन में शामिल कर इंडिया गठबंधन कहीं न कही एक बड़े वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश में है। हालांकि इस मामले पर एनडीए घटक दलों की राय अलग दिखायी पड़ती हैं, उनका कहना हैं कि पासवान मतदाता रामविलास पासवान की विरासत उनके बेटे चिराग पासवान को सौंप चुका है।

जब बात हो भारत में राजनीति की तो बिहार की चर्चा एक बार फिर ज़ोर पकड़ लेती हैं। चुनावी घोषणा करीब हैं और राजनीतिक पार्टियां एक बार फिर जातीय समीकरण की ओर दिखाई देती हैं। लोगों में सवालों का दौर और उन सवालों के बीच ज़वाब कहीं छिपे दिखायी पड़ते हैं। क्या बिहार को एक बार फिर मिलेगा नितीश कुमार का चेहरा? फिलहाल चर्चा इस बात की भी अचानक उपराष्ट्रपति का इस्तीफा क्यों? चर्चाओं के साथ शुरू होती लोकतांत्रिक देश की सुबह और हर लाईन पर एक प्रश्नचिन्ह दिखायी देता हैं? बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण के बीच एक बार फिर 17 प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रखने वाला मुस्लिम समाज की क्या भूमिका दिखने वाली हैं? क्या राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य इस समाज का प्रयोग सत्ता पर काबिज़ होने तक सीमित दिखायी देता हैं? फिलहाल आगे बढ़ते हैं और समझतें हैं कुछ और प्रश्न?
बिहार चुनाव की उलटी गिनती : बिहार विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू होने के साथ ही राजनीतिक दलों में सूक्ष्म मत प्रबंधन बिछने लगी है यानी जातीय समीकरण का खेल शुरू हो चुका हैं। अगर दो मुख्य गठबंधनों की बात करें तो कोई वापस सत्ता पर काबिज़ तो कोई सत्ता विरोधी हवा के रुख को भांपते हुए मतदाताओं को साधने के जतन में जुट चुका हैं। RJD की ओर से शुरू किए गए विधानसभावार सामाजिक न्याय परिचर्चा की काट के तहत भाजपा ने जातिगत सम्मेलन कराने का दायित्व पार्टी के सिपहसालारों को दिया है। एक बार फिर भाजपा ने जातीय सम्मेलन की ओर रूझान किया हैं। हर पार्टिंयों की नज़र अब बिहार की जातीय समीकरण पर अगर मुख्य पर नज़र डाले तो अनुसूचित जाति में पासवान, ऋषिदेव, सदा, मुसहर, मांझी, भुइयां एवं राजावर समाज के मतदाता अधिक हैं। वहीं कुर्मी व कुशवाहा एक बार फिर बड़ी भूमिका में नज़र आने वाले है। नई रणनीतियों में देखें तो अब पार्टियां महापुरूषों के नाम से कार्यक्रम आयोजन की ओर बढ़ी हैं। इन सबके बीच 17 प्रतिशत से ज्यादा पर बिहार की राजनीति में अपनी भूमिका निभाने वाला मुस्लिम समाज की बात न करें तों नइंसाफी नज़र आती हैं। क्या एक बार फिर मुस्लिम समाज एनडीए गठबंधन के विरूद्ध नज़र आने वाला है या किसी नयी रणनीति के साथ दिखने वाला हैं? क्या एक बार फिर RJD समेत इंडिया गठबंधन मुस्लिम समाज की संख्या केवल वोट के नज़रिये से देखते हैं? क्या मुस्लिम समाज की खुशी केवल NDA सरकार नहीं बनवाने भर तक सीमित हो चुकी हैं? या आरक्षण, शिक्षा जैसे मुद्दे भी नज़र आने वाले हैं? फिलहाल आगे बढ़ेगें और समझेंगें कुछ और मुद्दों को।
किस भूमिका में AIMIM : महागठबंधन में शामिल होने की इच्छा कई बार जाहिर करने वाली AIMIM को महागठबंधन की तरफ से एक बार फिर निराशा का मुंह देखना पड़ा है। मुस्लिम समाज पर दावा करने वाली AIMIM आखिर अपने आपको किस भूमिका में देखती हैं? फिलहाल बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार एनडीए (NDA) और महागठबंधन के अलावा अब थर्ड फ्रंट की कोशिश तेज हो चुकी है। महागठबंधन से भाव न मिलने से अब ओवैसी दूसरी छोटी पार्टियों को साथ लाने की कोशिश में लगे हुए नज़र आते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं महागठबंधन भी मुस्लिम वोटर से कोई समझौता नहीं चाहता? हालाकि इसमें कोई शक नहीं दिखता कि AIMIM लगभग 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। कहीं AIMIM की बढ़त का सीधा असर RJD पर तो नहीं पड़ने वाला? पिछले चुनाव में RJD का सबसे कमजोर प्रदर्शन सीमांचल में ही रहा था और यहां ओवैसी की पार्टी ने वोट को काटकर चुनाव को प्रभावित भी किया था और महागठबंधन बहुमत से दूर रही थी। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में 20 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली AIMIM ने 5 सीट पर कब्ज़ा जमाया था। देखने वाली बात यह होगी कि RJD के लिए कितना आसान होने वाला यह भुलाना। हालांकि, जीतने के बाद उनके 4 विधायक RJD में ही शामिल हो गए थें। चलिए आगे बढ़ते हैं और समझते मुस्लिम समीकरण को सीमांचल में अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया में मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी के करीब मानी जाती है। आम तौर पर मुस्लिम वोट RJD के पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है, लेकिन पिछले चुनाव में ओवैसी की पार्टी भी इस वर्ग को आकर्षित करने में सफल रही थी। इससे वोटों का पारंपरिक समीकरण बदल सा गया है और इसी बात का डर अब RJD को सताने लगा हैं कि कहीं मुस्लिम वोटर AIMIM को पहचानने तो नहीं लगें।
आरजेडी का दावा : इधर RJD एक बार फिर इस दावे के जिंदा नज़र आती हैं कि इंडिया गठबंधन के साथ 47 से 50% तक जातियों का वोट जुड़ा हुआ है और अब इंडिया गठबंधन की सेंधमारी रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस को साथ लेकर चलने की दिखायी देती है। चूंकि पासवान वोटरों की जनसंख्या 5.31% है। जिस पर चिराग पासवान की मजबूत पकड़ मानी जाती है। लिहाजा पशुपति पारस को अपने गठबंधन में शामिल कर इंडिया गठबंधन कहीं न कही एक बड़े वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश में है। हालांकि इस मामले पर एनडीए घटक दलों की राय अलग दिखायी पड़ती हैं, उनका कहना हैं कि पासवान मतदाता रामविलास पासवान की विरासत उनके बेटे चिराग पासवान को सौंप चुका है। दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन समेत एनडीए मल्लाह वोटों पर भी अपनी आंख गड़ाये बैठे हैं।
क्या मुस्लिम समाज केवल एनडीए के विरूद्ध : सवाल एक बार फिर वहीं आखिर मुस्लिम वोटर का वारिस कौन? क्या महागठबंधन केवल एनडीए सरकार का डर दिखाकर इन वोटर पर सेंध लगाने वाला हैं? पर यह कोई नयी बात तो नहीं। कहीं महागठबंधन भी इन वोटर्स को अपना फ्री वोटर्स तो नहीं मान चुका? चलिए आगे बढ़ते हैं और समझते हैं कुछ इन्हीं समीकरण को। 17 प्रतिशत से ज्यादा आबादी रखने वाला मुस्लिम समाज जो 50 से ज्यादा सीटों को प्रभावित कर सकता हैं। क्या उनकी अहमियत केवल संख्या बल तक सीमित दिखायी देती हैं? क्या RJD की अगुवाई वाला महागठबंधन भी इस बात को लेकर अस्वस्त हैं कि इन वोट्स पर पहली दावेदारी उनकी ही हैं? चलिए थोड़ा पीछे की ओर चलते हैं और समझेंगे कुछ बारीकियों को, 2020 के विधानसभा चुनाव में AIMIM ने मुस्लिम समाज के वोटों पर एक बड़ी सेध लगाई थी। बिहार की राजनीति में 17 प्रतिशत की दावेदारी करने वाला यह समाज क्या एक तरफा वोट करने वाला हैं या फिर 17 में से 10 प्रतिशत पर काबिज़ होने वाला पसमांदा समाज की पहली पसंद NDA होने वाली हैं। कुछ सवाल आपके लिए क्या मुस्लिम समाज की हैसियत केवल वोट तक सीमित? आज़ादी के बाद इस समाज की क्या हैं विकास दर? क्या हैं इस समाज में रोज़गार की स्थिति? क्यों हैं इस समाज में शिक्षा एक कमज़ोर कड़ी? क्या सभी राजनीतिक पार्टियों का उद्देश्य केवल वोट पर सेंध लगाना मात्र तक सीमित? इन सभी सवालों का जवाब केवल और केवल हमारी जनता के पास ही मौजूद।