किसी ने पूछा संविधान में मौजूद तीन स्तम्भ के काम का ब्योरा जनता तक कैसे पहुंचता हैं। तो याद आती हैं, चौथे स्तम्भ की भूमिका। जनता के मन में एक बार फिर चौथे स्तम्भ पर नये सिरे से सोच, कुछ नयें सवालों को जन्म देती तो वहीं दूसरी तरफ पत्रकरों की भूमिका पर नये सिरे से सोचना ज़रूरी सा दिखायी देने लगता हैं। फिलहाल हर ख़बर की बारीकी को जनता तक पहुंचाना आसान तो नज़र नहीं आता। पर लोकतांत्रिक देश में सवाल और सवालों से शुरू होती हर रोज़ एक नयी सुबह फिर नये सवालो की ओर खीचती चली जाती हैं? फिलहाल एक लोकतांत्रिक देश के लिए पत्रकार के सवाल व पत्रकारों के लिए सवाल सबसे अहम दिखायी पड़ते हैं। इन्हीं सवालों से जनता का उत्तर कहीं न कहीं आसान सा नज़र आने लगता हैं।

लोकतांत्रिक देश का आधार उस देश की जनता और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि के काम का ब्योरा उस जनता तक पहुंचाने के लिए एक मात्र प्रमुख साधन में से एक मीडिया को ही माना जाना चाहिए इसलिए किसी भी लोकतांत्रिक देश में मीडिया की भूमिका को नकारना उस देश की जनता को नकारने जैसा प्रतीत होता हैं। संविधान के तीन स्तम्भ को जितना अहम माना जाता हैं, उतना ही अहम मीडिया की भूमिका माने जाने में फिलहाल किसी को भी गुरहेज़ नहीं होना चाहिए।
समझेंगें आर्टिकल 19 को: संविधान में मौजूद आर्टिकल 19 को संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का अहम भाग माना जाता हैं, जो किसी भी नागरिक को बोलने की आज़ादी देता हैं। यानी लोकतंत्र का आधारभूत ढ़ांचा कहें जाने में कहीं न कहीं बोलने की आज़ादी अहम मानी जाती हैं। चलिए थोड़ा आगे बढ़ते हैं, एक लोकतांत्रिक देश जिसमें जनता के द्वारा जनता का प्रतिनिधि सिंहासन पर बैंठकर एक समय तक राज करता हैं और उस कार्यकाल में उसके कार्य का जनता पर पड़ने वाला प्रभाव का ब्योरा जनता तक पहुंचाने का काम या यूं कहें मीडिया की भूमिका अहम नज़र आती हैं या एक प्रमुख साधन के रूप में मीडिया ही दिखायी देती हैं। पर क्या कभी हमने यह भी सोचा हैं कि एक पत्रकार को किसी भी रिपोर्ट पर काम करने पर कितनी कठिनाई होती हैं या किसी भी ख़बर को जनता तक पहुंचाने में कितनी रूकावटों का सामना करना पड़ सकता हैं।
नवाबों व अदब के शहर लखनऊ में घूमते हुए, शख्स से मुलाकात के दौरान राजनीति पर चर्चा के साथ देश की पत्रकारिता पर पहुंचें प्रश्न के दौरान उनके द्वारा दिये गये जवाब बड़े कठोर व लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाले मालूम हुए। पुरानी पत्रकारिता व आज की पत्रकारिता के प्रश्न पर वह कहते हैं कि आज की पत्रकारिता मोबाईल व लैपटॉप तक सीमित सी दिखायी देती हैं। एआई व चैट जीपीटी ने और भी सोने पर सुहागा कर दिया हैं। गोदी मीडिया जैसे शब्द ने एक बार फिर मीडिया के प्रश्न पर निराश ही किया। पर हमारे सामने अब प्रश्न यह हैं की क्या सभी पत्रकारों के लिए ऐसा सोचना सही हैं? क्या लोगों के मन में पत्रकार की छवि धूमिल सी दिखायी पड़ती हैं? फिलहाल अगर हर पत्रकार के लिए इस तरह की सोंच तो उन पत्रकार के लिए नइंसाफी सी नज़र आएगी, जो दिन रात मेहनत कर ईमानदारी के साथ किसी भी रिपोर्ट को जनता तक पहुंचाने की भूमिका में नज़र आते हैं। बता दें दोस्तों देश में शेर और पत्रकार बहुत ही कम बचे हैं।
प्रतिष्ठित चैंनल में काम करने वाली हमारी मित्र नें नाम न बताने की शर्त पर पत्रकारित के सवाल पर कहती हैं कि डिजिटलाईजेशन ने लगभग सब कुछ बदल सा दिया हैं, जिन खबरों को ग्राउंड लेवल पर कवर करना कठिन होता था वह बड़ी ही आसानी से डिजिटल प्लेटफार्म पर मिल जाती हैं। कहीं न कहीं एक पत्रकार को भी इस बात की सुविधा का अनुभव हुआ जिसे वह वड़ी ही आसानी से प्राप्त कर सकता था। हालांकि हर पत्रकार को इससे प्रभावित माने जाने पर कुछ पत्रकारों के साथ न इंसाफी भी नज़र आती हैं। अभी भी बहुत से पत्रकार ऐसे मिलेंगें जो डिजिटल प्लेटफार्म पर चलने वाली खबर के मुकाबलें ग्राउंड पर कवर करना कहीं न कहीं ज्यादा ठीक समझतें हैं। मीडिया पर बढ़ते दबाव को लेकर सवाल पर वह कहती हैं कि कहीं न कहीं मीडिया को दबाव का सामना करना पड़ता हैं, चाहें फिर वह सत्तापक्ष से हो या विपक्ष से। लेकिन ये बात भी किसी से छिपी नहीं हैं कि सत्तापक्ष लगातार इस बात को लेकर दबाव की ओर रहता हैं कि उनकी खामियों को कम ही दिखाया जाय। फिर चाहें एनडीए सत्तापक्ष में रहीं हो या फिर यूपीए। लेकिन क्या दिखाना हैं या क्या नहीं इस बात का निर्णय भी मीडिया कें पास ही होना चाहिए, तब हम असल मायने में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मानेंगें।
15 वीं सदी में प्रिंटिंग प्रेस के अविष्कार ने बड़ी संख्या में समाचार पत्रों के लिए रास्ता बनाया। आज वहीं समाचार पत्र कहीं न कही एक लोकतांत्रिक देश में जनता तक सत्तापक्ष की खामियों को पहुंचाने में अहम भूमिका में नज़र आती हैं। एक लोकतांत्रिक देश का आधारभूत स्तम्भ कहीं न कहीं उस देश की मीडिया को कहना गलत नहीं होगा तो फिर मीडिया की दिखायी तस्वीर को ही स्वीकार करना एक मात्र रास्ता सा दिखयी देता या कोई और तराज़ू जो इस बात की तस्दीक करेगा क्या सहीं या क्या गलत हैं? चलिये आगे बढ़ते हैं, क्या कोई और पैमाना हैं हमारे पास जो बताएगा कि मीडिया की बातायी बात सहीं हैं या गलत, या एक मात्र मीडिया द्वारा थोपी गयी तस्वीर को स्वीकार करना मज़बूरी सी दिखायी पड़ती हैं। फिलहाल हमारे पत्रकार दोस्तों को उनकी मेहनत और लोकतंत्र की बुनियाद को बनाये रखने के लिए सलाम।
क्यों मीडिया पर सवाल: एक पक्ष सत्ता में तो दूसरा विक्षप में विराजमान होती लोकतांत्रिक देश की तस्वीर, जहां पर हर व्यक्ति के वोट की अपनी एक अलग सी अहमियत सी दिखायी देती हैं। अब सवाल यह कि अगले चुनाव में जनता तक सत्ता पक्ष के कार्य का ब्योंरा देगा कौन? क्या इन कार्य के ब्योरे की जानकारी के लिए मीडिया ही एक अहम रोल में नज़र आती हैं? या एक मात्र मीडिया ही तो नहीं जनता तक रिपोर्ट पहुंचाने का साधन? तो फिर कितना आसान हो जाता हैं किसी भी सत्ताधारी पार्टी या राजनैतिक पार्टी के लिए मीडिया को प्रभावित कर जनता तक पहुंचने वाली रिपोर्ट को प्रभावित करना। फिलहाल मीडिया फिर और फिर कटघरे में ही नज़र आती हैं।
हालांकि पत्रकार के उस कठिन परिश्रम को किसी भी कमी में आकना नाइंसाफी सी भी नज़र आती हैं। जहां वह एक छोटी सी तन्ख्वाह में जनता तक हर उस खबर को पहुंचाना व लोकतंत्र को बनाये रखने की भूमिका में एक अहम कड़ी के रूप में बनी छवि किसी से छिपि नज़र नहीं आती। हां यह बात भी छिपी नहीं किसी से चाहें वह सत्तापक्ष हो या विपक्ष कहीं न कहीं इस बात का लगातार दबाव बनाने गुरहेज़ नहीं करता कि किसकी अच्छाई व किसकी बुरायी दिखायी जानी चाहिए। पर इस बात को नज़रअन्दाज़ करना उस जनता के साथ भी नाइंसाफी सी ही नज़र आती हैं कि किसको सत्ता पर काबिज़ व दरकिनार करने में मीडिया द्वारा ही अहम भूमिका निभायी जाती रही हैं।