सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल केस के फैसले में इसकी झलक सी दिखायी पड़ती हैं। जिसमें अदालत ने कहा था कि राज्यपाल ने राज्य सरकार के 10 जरूरी बिलों को रोके रखा, यह अवैध और असंवैधानिक है। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने राज्यपालों के अधिकार की सीमा तय कर दी थी और कहा बिल रोकना मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं।

अदालते राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान का आर्टिकल 142 के तहत अदालत को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24x7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर संसद की तरह काम कर रहे हैं। हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे। जो सुपर संसद के रूप में भी काम करेंगे। उनकी कोई जवाबदेहीं नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है।
कानूनन न तो संसद सर्वोच्च है और न ही कार्यपालिका। संविधान सर्वोच्च है। संविधान के प्रावधानों की व्याख्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा की जाती है। इस देश ने अब तक कानून को इसी तरह समझा है। इन वक्तव्य के साथ शुरू हुयी बहस ने संसद और न्यायपालिका के बीच दायरा को लेकर एक नयी सी जंग छेड़ दी हैं। हर किसी के मन में संसद और न्यायपालिका की शक्ति को लेकर सवाल दिखायी देने लगे हैं। मित्र पूछता हैं कि ये दोनो में ही कौन ज्यादा शक्तिशाली हैं पर ये सवाल क्या केवल उसका हैं? फिलहाल आगे बढ़ेंगें औंर समझनें की कोशिश करेगें, क्यों सर्वोच्चता की लड़ाई?
क्यों छिड़ी बहस: हालही में सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल केस के फैसले में इसकी झलक सी दिखायी पड़ती हैं। जिसमें अदालत ने कहा था कि राज्यपाल ने राज्य सरकार के 10 जरूरी बिलों को रोके रखा, यह अवैध और असंवैधानिक है। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने राज्यपालों के अधिकार की सीमा तय कर दी थी और कहा बिल रोकना मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं। राज्यपाल को राज्य की विधानसभा को मदद और सलाह देनी चाहिए थी। बेंच ने यह भी कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। इसी मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के लिए बिल पर काम करने की टाइमलाइन तय करते हुए कहा कि विधानसभा से पास बिल पर राज्यपाल तीन महीने के भीतर कदम उठाएं। राज्यपालों को निर्देश दिया कि उन्हें अपने विकल्पों का इस्तेमाल तय समय-सीमा में करना होगा। वरना उनके उठाए गए कदमों की कानूनी समीक्षा की जाएगी। कोर्ट कहती हैं कि राज्यपाल बिल रोकें या राष्ट्रपति के पास भेजें। उन्हें यह काम मंत्रिपरिषद की सलाह से एक महीने के अंदर करना होगा। विधानसभा बिल को दोबारा पास कर भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी।
अब कुछ केस लॉ: समझ को आसान बनाने के लिए हम ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ की मदद ले सकते हैं। 13 न्यायाधीशों वाली इस संविधान पीठ ने 7-6 के बहुमत से दिये गये निर्णय ने संविधान की ‘आधारभूत संरचना’ के बारे में बताया था। आगे बढ़ेगें और संविधान के आधारभूत संरचना यानी संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के कुछ रेलेवेन्ट प्वाइंट को समझने की कोशिश करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार मामला’ (1951) और ‘सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार मामला’ (1965) जैसे मामलों में निर्णय देते हुए संसद को संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की यानी संसद संविधान में किसी भी तरह का संशोधन कर सकती थी। इसका सीधा मतलब यह हैं कि संसद ही सबसे ताकतवर संस्था के रूप में ऊभर चुकि थी। अब बारी थी संसद द्वारा अपनी शक्ति दिखाना। जब सरकारों ने अपने राजनीतिक हितों के लिये संविधान में संशोधन करना चाहा तब ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार’ (1967) मामले में भारत की सुप्रीम न्यायालय ने कहा कि “संसद अनुच्छेद 368 के अधीन मौलिक अधिकारों को समाप्त या सीमित करने की शक्ति नहीं रखती है।” प्रश्न यह हैं कि क्या यहीं से शुरू हुई थी सर्वोच्चता की लड़ाई, फिलहाल आगे बढ़ते हैं।
संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव: शुरू हुआ 1970 का दशक और उस समय की सरकार द्वारा ‘आरसी कूपर बनाम भारतीय संघ (1970), माधवराव सिंधिया बनाम भारत संघ (1970) आदि मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णयों को बदलने के लिये संविधान में संशोधन किये। अब बारी सर्वोच्च न्यायालय की थी। जिसने इंदिरा गांधी सरकार के ‘बैंकों के राष्ट्रीयकरण’ करने के निर्णय को अवैध घोषित कर दिया था।
अब केशवानंद भारती की संवैधानिक पीठ में, सदस्यों के बीच गंभीर वैचारिक मतभेद देखने को मिले जहां पर पीठ ने 7-6 से निर्णय किया कि संसद को संविधान के ‘आधारभूत संरचना’ में बदलाव करने से रोका जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आर्टिकल 368 जो संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्तियाँ प्रदान करता है, के तहत संविधान की आधारभूत संरचना यानी बेसिक स्ट्रक्चर में बदलाव नहीं किया जा सकता है। यानी अब संसद संविधान में बदलाव तो कर सकती थी पर उसके बेसिक स्ट्रक्चर में बिना छेड़छाड़ किये। सवाल अब एक नया आकर खड़ा हो चुका था। जिस बेसिक स्ट्रक्चर की बात सुप्रीम कोर्ट कर रही थी, वह क्या हैं?
सेपरेशन्स ऑफ पॉवर क्यों ज़रूरी?: वैसे तो आधारभूत संरचना यानी संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर को परिभाषित नहीं किया जा सकता लेकिन इसे कुछ तत्वों के साथ समझा जा सकता हैं। संविधान में मौजूद संविधान की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत, संसदीय प्रणाली को अहम माना जाता हैं। जिसमें से सेपरेशन्स ऑफ पॉवर्स यानी शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का सीधा मतलब है कि लोकतंत्र के प्रत्येक स्तंभ जिसमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अलग-अलग अपना काम संविधान के अनुसार करते हैं, बिना दूसरी बॉडी या स्तम्भ के काम में दखल दिये। सेपेरेशन्स ऑफ पॉवर्स का काम एक हाथ में शक्ति के केंद्रीकरण को रोकना है। क्योकि ऐसा भी माना जाता हैं कि एक हाथ में शक्ति विनाशकारी हो सकती हैं।
आर्टिकल 142 को लेकर बहस : इसमें सुप्रीम कोर्ट को विवेकाधीन शक्ति देते हुए कहा गया है कि अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकता है या ऐसा आदेश दे सकता है, जो उसके समझ लंबित किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो। आपको यह भी बताते चले कि यह शक्ति का प्रयोग वहां नहीं किया जाता जहां कोई भी दूसरा उपचार उपलब्ध हो यानी इस आर्टिकल का प्रयोग वहां नहीं किया जा सकता जहां पहलें से ही कोई कानून या आर्टिकल लागू होता हों। बता दें इसी आर्टिकल को लेकर देश में बहस का दौर जारी हैं।
वैसे तो भारत में संविधान सबसे ऊपर माना जाता हैं और न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक माना जाता हैं। ज़रा सोचियें अगर संसद ऐसा बिल पास कर दें जिससे संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर में बदलाव आ जाय या किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकार खत्म हो जाये तो उस स्थिति में क्या होगा? तब तो एक ऐसी संस्था का होना लाज़मी हैं कि और न्यायपालिका को बताना होगा बनाये गये कानून की संवैधानिकता कितनी हैं। यानी अब इस स्थिति में संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाने वाले न्यायपालिका या सुप्रीम न्यायालय की भूमिका और भी अहम दिखने लगती हैं।
लोकतांत्रिक देश में अवश्य संसद सुप्रीम होती हैं पर क्या संसद अपनी ताकत पर निरंकुश भी हो सकती हैं यानी इतनी शक्तिशाली हो जाय कि देश के लोगो के मानवाधिकार ही कुचल दें। चलिए समझते हैं। जब जनता किसी भी अपने नेता या संस्था को सुप्रेमेसि देती हैं तो यह उम्मीद रखती हैं वह ही हमारी रक्षा करेगा यानी यह एक बदले का कॉन्ट्रेक्ट कहें तो गलत नहीं होगा। लेकिन सवाल यह हैं, अब यह कौन देखेगा कि संसद का बनाया कानून जनहित में कितना कारगर हैं या वह कानून संवैधानिक हैं भी कि नहीं। इसी की देखरेख के लिए न्यायपालिका को एक किसी भी संस्था से अलग करते हुए एक अलग बॉडी के रूप में सजाया गया हैं। जो कि एक तरह से संविधान के बेसिक स्ट्रक्च्र का पार्ट भी माना जाता हैं। अगर हमारे किसी मित्र ने यह पूछा कि संसद ज्यादा ताकतवर हैं या न्यायपालिका अवश्य इसका उत्तर देना आसान नहीं। लेकिन सेपेशन्स ऑफ पॉवर हर संस्था में ताकत को बांट देती हैं। जिससे किसी भी एक बॉडी को सुप्रीम पावर देकर निरंकुश बनाने से रोका जा सकें। फिलहाल राष्ट्रपति द्वारा इसी मामले से संबंधित संविधान के आर्टिकल 143(1) का उपयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय से 14 सवालों पर राय मांगी हैं।