जब राज्यपाल के सामने कोई बिल आता है, तो उनके पास कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं? क्या राज्यपाल फैसला लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं? क्या राज्यपाल के फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है? क्या आर्टिकल 361 राज्यपाल के फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह रोक सकता है? अगर संविधान में राज्यपाल के लिए कोई समयसीमा तय नहीं है, तो क्या अदालत कोई समयसीमा तय कर सकती है? क्या राष्ट्रपति के फैसले को भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है? क्या राष्ट्रपति के फैसलों पर भी अदालत समयसीमा तय कर सकती है? क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से राय लेना अनिवार्य है? क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर कानून लागू होने से पहले ही अदालत सुनवाई कर सकती है? क्या सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करके राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों को बदल सकता है? क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित कानून, राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू होता है? क्या संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजना अनिवार्य है? क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो? क्या केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?

राष्ट्रपति के इन सवालों के साथ शुरू होती भारत सहित सर्वोच्च न्यायालय तक बहस की गूंज हर किसी को एक नये सवाल की ओर ले जाती दिखायी देती हैं। फिलहाल लोकतांत्रिक देश के लिए सवाल और सवाल के ज़रियें ही नयीं सुबह का आगाज़ कहीं न कहीं नयी दिशा की ओर ले जाता दिखायी देता हैं।
क्यों बहस : तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के मतभेद से शुरू हुए विवाद अब तूल पकड़ते दिखायी देने लगे हैं। जहां पर गवर्नर के द्वारा राज्य सरकार के बिल रोककर रखने पर सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को आदेश जारी करते हुए कहा कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं हैं। इसी फैसले में यह भी कहा गया कि राज्यपाल की ओर से भेजे गये बिल पर राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर फैसला लेना होगा। इसी के बाद ही राष्ट्रपति ने मामले में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी और 14 सवाल के जवाब पूछे। हालांकि देखने वाली बात यह हैं कि केन्द्र सरकार के साथ अपना पक्ष रखने वाली भाजपा शासित राज्यों में किसी तरह की समस्या दिखायी नहीं देती जोकि कहीं न कहीं इस मामले पर केन्द्र सरकार के साथ ही अपना पक्ष रखती नज़र आती हैं।
सुप्रीम कोर्ट में बहस: वैसे तों किसी भी पार्टी के राजनीतिक मतभेद किसी से छिपे नहीं हैं और जब यह मतभेद संविधानिक पद तक पहुंच जाते है, तो समस्या देश के हर नागरिक की नज़र आने लगती हैं। केन्द्र व राज्य की सरकारों में अलग-अलग पार्टियों के सत्ता पर काबिज़ होने के साथ ही जनता की अदालत यानी विधानसभा द्वारा पास किसी भी बिल को कानून बनने के स्तर तक समस्या का सामना करना पड़ सकता हैं। हालांकि इन अहम मुद्दों को लेकर देश की सुप्रीम न्यायालय से लेकर हर किसी के मन में बहस जारी हैं। चाहें आप और हम कुछ भी समझें किसी भी मतभेद में नुकसान जनता को ही उठाना पड़ता हैं। फिलहाल राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट से पूछें गये प्रश्न से शुरू हुयी बहस। क्या अदालत राज्यपालों और राष्ट्रपति को बिलों पर फैसला करने के लिए समय-सीमा तय कर सकती है? हालांकि मामलें को लेकर देश की सुप्रीम अदालत में देश के सॉलिस्टर जनरल व सीनियर वकील अभिषेक मनु सिंघवी समेत कपिल सिब्बल जैसे दिग्गजों के बीच बहस होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया हैं। चलिए अब संविधान पर चलते हैं, आखिर वह इस बारे में क्या कहता हैं?
समझें आर्टिकल 200 व 201 को: जब एक विधेयक यानी कोई कानून दोनों सदनों यानी विधानसभा और जिन राज्यों में विधानपरिषद हैं द्वारा पास किया जा चुका है तो वह राज्यपाल के पास उसकी अनुमति के लिए भेजा जाता है। अब राज्यपाल के पास तीन रास्ते होते हैं। वह विधेयक को स्वीकृति दे दे या अपनी स्वीकृति रोक ले या विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित कर ले। एक परिस्थिति में अवश्य ही जब वह विधेयक राज्य के उच्च न्यायालय के अधिकारों एवं शक्तियों को प्रभावित करता है तो उसे उस विधेयक को तो आरक्षित करना ही है या पुनर्विचार के लिए विधेयक को वापस कर दे। तो सदन उस पर विचार करेगा ही, किन्तु यह सदन पर निर्भर करता है कि राज्यपाल द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को वह माने या न माने। किन्तु दोबारा यदि वही विधेयक अपने पूर्व रूप या संशोधित रूप में सदनों द्वारा पारित हो जाता है और राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है तो वह उसे वापस नहीं कर सकता। सामान्यत: देखा जाय तो यह आर्टिकल से स्पष्ट है कि राज्यपाल को कोई भी विधेयक रद्द करने का अधिकार नहीं है या तो वह उस विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे या फिर उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर ले। जहाँ पर विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर लिया गया है, वहाँ पर राष्ट्रपति के पास उसके सम्बन्ध में तीन मार्ग हैं। वह विधेयक पर स्वीकृति दे दे या अपनी स्वीकृति रोक ले। अगर विधेयक धन विधेयक नहीं है तो वह उसे पुनर्विचार हेतु राज्य के विधानमण्डल के सदन या सदनों को भेज सकता है तथा कतिपय संशोधन समझा सकता है। राज्य के विधानमण्डल को उस विधेयक पर प्राप्त हो जाने के पश्चात् 6 महीने की अवधि के अन्दर अवश्य विचार कर लेना चाहिए। यदि उसे सदन ने पुनः उसी रूप में अथवा संशोधन सहित पास कर दिया तो यह राष्ट्रपति पर निर्भर है कि वह चाहे तो उस पर अपनी अनुमति दे दे अथवा अस्वीकार कर दे। यह हैं संविधान में लिखि प्रक्रिया।
संगीन होती बहस : कुछ अहम सवालों को लेकर संगीन होती बहस को समझने की कोशिश करेंगें केन्द्र सरकार की तरफ से पेश हुए अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि क्या अदालत संविधान को फिर से लिख सकती हैं? कोर्ट ने गवर्नर और राष्ट्रपति को आम प्रशासनिक अधिकारी की तरह देखा जबकि वे संवैधानिक पद हैं। केन्द्र सरकार का कहना हैं कि राज्य सरकारे आर्टिकल 32 का इस्तेमाल नहीं कर सकती। CJI ने पूछा अगर कोई व्यक्ति 2020 से 2025 तक बिलों पर रोक लगाकर रखेगा तो क्या कोर्ट को बेबस होकर बैठ जाना चाहिए? क्या सुप्रीम कोर्ट को संविधान के संरक्षक के रूप में अपनी जिम्मेदारी त्याग देनी चाहिए? इन तमाम तीखे सवालों से शुरू होती बहस जो किसी भी अंजाम तक पहुंचने में टेढ़ी खीर नज़र आती हैं। फिलहाल हर भारतीय को इन सवालों के जवाब जानने की चाह और भी दिलचस्प होती दिखायी देती हैं।
कुछ और सवाल : सबसे पहला सवाल यह कि जनता की अदालत से पास हुआ बिल यानी विधानसभा की मुहर लगने के बाद क्या किसी भी बिल को राज्यपाल द्वारा रोका जा सकता हैं? दूसरा सवाल संविधान सभा ने राज्यपाल को बिल अपने पास रोक रखने की समय सीमा क्यों नहीं निर्धारित की जबकि एक समय सीमा मनी बिल में निर्धारित थी? चलिए आगे बढ़ते हैं तीसरे सवाल की ओर मान लेते हैं सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल या राष्ट्रपति पर बिल रोकने की एक समय सीमा निर्धारित कर देता हैं तो क्या उस समय सीमा में बिल पर मुहर लग जायेगी अगर नहीं लगती हैं तो उसके बाद क्या होगा? चौथा सवाल क्या एक संविधानिक संस्था दूसरे संविधानिक संस्था पर किसी तरह का टाईम बाउंड लगा सकती हैं? पांचवा सवाल क्या जनता का पास किया बिल पर रोक लगायी जा सकती हैं? लेकिन बात चाहें जो भी रहीं हो पार्टियों में राजनीतिक मतभेद से नुकसान कहीं न कहीं जनता को ही उठना पड़ता हैं। प्रश्न तो बहुत नज़र आते हैं पर उनका उत्तर तलशना आसान नहीं दिखायी देता।
चलिए समझतें कुछ आसान भाषा में जनता के चुनाव में नीहित होने वाला भारतीय संविधान का आधारभूत ढ़ांचा यानी बेसिक स्ट्रक्चर जहां पर संसद हो या विधानसभा दोनों ही जनता के प्रत्यक्ष यानी डायरेक्ट चुनाव से बनती हैं सारी असीम ताकत कहीं न कहीं जनता में निहित दिखायी देने वाली इन संस्थाओं द्वारा भेजे गये प्रस्ताव पर किसी के द्वारा रोक लगाने पर एक तरह से जनता की अवहेलना सी नज़र आती हैं। कहीं राज्यपाल का विपक्षी सरकार के बिल पर रोक लगाना केवल राजनीतिक मतभेद तो नहीं? फिलहाल गेंद अब देश की सुप्रीम अदालत के पास हैं और जवाब की चाह लिए जनता फिर एक नये सवाल की ओर।