फिलस्तीनियों को वापस गज़ा नहीं जाना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में गज़ा की जमीन रहने लायक नहीं है। वे चाहते हैं कि फिलस्तीनी किसी दूसरे स्थान पर जाकर बसें। अमेरिकी मैप की तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर जिसमें कनाडा को अमेरिका का हिस्सा दिखाना। इन वक्तव्य के साथ दूसरी बार अमेरिकी सत्ता में प्रवेश करने वाले नए राष्ट्रपति ने विश्व राजनीति में एक नई सुगबुहाअट को जन्म दे दिया हैं। अब इसे चीन की विस्तारवादी सोच से प्रभावित होना कहेगें या एक पूंजीपति का नया बिजनेस प्लान, जो भी है यह एक जनता के लिए प्रश्न चिन्ह रहने वाला है। फिलहाल हमारे पास वही सवाल हैं जो पहले थे क्या फिलिस्तीनी लोगो के अधिकार ख़त्म होने वाले है? क्या अमेरिका नई नीतियों के साथ उतरेगा? क्या बड़ी मात्रा में होगा पलायन? क्या अरब की मौनत: बनेगी कमज़ोर कड़ी?

फिर से सत्ता पर काबिज़ होने वाले ट्रम्प क्या बदलने वाले हैं विश्व राजनीति की तस्वीर? हालही में हुए अमेरिकी सत्ता परिवर्तन ने कई धुरि पर नये सिरे से विचार करने पर मज़बूर कर दिया है। क्या होगा मिडिल ईस्ट समेत यूक्रेन जैसे मुद्दों पर असर कही चीन की विस्तारवादी नीति से अमेरिका प्रभावित तो नहीं। इस तरह के तमाम सवाल आज हर उस देश के लिए दूर की कड़ी बनते जा रहे जो अमेरिका की राजनीति में बदलाव से खुद को प्रभावित करने की ओर देखता है। फिलहाल ट्रम्प के सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सबसे पहले इस्त्राइली प्रधानमंत्री का दौरा कई और सवाल खड़ा करता हैं।
क्या फिलस्तीनियों पर गज़ा से बाहर होने का खतरा : ट्रम्प के वक्तव्य से 18 लाख फलस्तीनियों पर गज़ा से बाहर होने का खतरा मंडराने लगा है। ट्रंप सरकार का कहना है कि इस क्षेत्र को सैनिकों की मदद से अपने कब्जे में लेकर इसका विकास करना चाहते हैं। जानकारों की माने तो यह ट्रम्प की नई नीति का हिस्सा है। ऐसे में इस तरह के फैसले अंतर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन भी कहे जा सकते है। क्या एक जाति विशेष के लिए ऐसा फैसला कई माईनो में उनके मौलिक अधिकारों के साथ कई अंतर्राष्ट्रीय अधिकारों पर असर नहीं डालेगा? ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि मुस्लिम देश के नेता बनने की होड़ में सऊदी अरब, तुर्की या ईरान जैसे देशों द्वारा इस पर अपनी सहमति दी जाएगी। क्या अरब देश की मौनत: हर बात की रज़ा मंदी होगी? फिलहाल यूक्रेन और रूस जैसे मुद्दे भी किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाये हैं। सालो से चल रहे इस युद्ध को ट्रम्प की कोई भी नीति अंजाम तक पहुंचाने में कामयाब होने वाली है या वही प्रश्न चिन्ह लगा रहने वाला हैं जो कभी पहले था।
नई विस्तारवादी या रियल ईस्टेट की आज़माईश: चुनाव जीतने के बाद कनाडा को अमेरिकी राज्य बनाने की बात कहने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मैप की तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर कनाडा को अमेरिका का हिस्सा दिखाया। जिसके बाद ग्लोबल पॉलिटिक्स में सनसनी सी फ़ैल गयी और फिर एक प्रश्न चिन्ह बन गया कि क्या यह चीन की विस्तारवादी योजना से अलग दिखती है, क्या दुनियां का कोई भी देश इस तरह की योजना से ख़ुशी ज़ाहिर कर सकता है? रियल ईस्टेट में अपने हाथ ज़माने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति क्या फिलिस्तीनी इलाके को अपने बिज़नेस पर्पस की नज़र से देखते हैं या किसी आड़ में इलाके को खाली कराने की फ़िराक़ में एक नई फुलजड़ी पकड़ा दी हैं। फिलहाल एक बार फिर अरब ने मौन व्रत धारण कर रखा है। दो साल से अधिक बीत चुके रूस और यूक्रेन के युद्ध को क्या अमेरिका की नई सरकार ख़त्म कर पाने में कामयाब होगी या मुद्दे वहीं रहने वाले हैं, जो पिछली सरकार मे थे या अभी भी हथियारों को बेच कर मुनाफे की ओर बढ़ा जायेगा। ग्लोबल वर्ल्ड मे नेता का ठप्पा लेने वाला अमेरिका एक बार उन्ही मुद्दों को लेकर मुख़र होने वाला है जो पहले कभी थे फिलहाल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आधिकारिक तौर पर 80 वर्षीय रिटायर्ड जनरल कीथ केलॉग को यूक्रेन और रूस के लिए अपना दूत नियुक्त किया हैं। प्रश्न वहीं रहेगा कि हथियारों का ज़खीरा रखने वाला अमेरिका क्या इतनी आसानी से युद्ध को अंजाम तक पहुंचाने में भूमिका निभाने वाला है?
ज़ाहिर सी बात हैं हर देश में सत्ता बदलाव पर नीतियों में असर देखने को मिलता हैं। इसी तरह कही न कही अमेरिका में भी नीतियों पर बदलाव दिख सकता है। फिर चाहे चाबहार बंदरगाह पर पैनी नज़र हो या ब्रिक्स पर एक बार फिर तल्ख़ टिप्पणी हावी रहने वाली है या इन मुद्दों में कही ज्यादा ज़रूरी फिलिस्तीन समेत रूस -यूक्रेन मुद्दा हावी रहने वाला है और एच -1बी वीज़ा के नियमों को कठोर बनाने पर भारतीय पेशेवरों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। यह कुछ मुद्दे जो दुनियां की बड़ी आबादी को प्रभावित करने वाले है, एक बार फिर हावी होंगे।
-अकबर अली, अंतर्राष्ट्रीय मामलो के जानकर
क्यों हर मुद्दों पर अमेरिका की राय : ऐसे में ज़रूरी हो जाता हैं यह समझना कि कब तक इन्तज़ार चाहें यूक्रेन हो या फिलिस्तीन या साऊथ एशिया हर मुद्दों पर अमेरिका की राय क्यों अहम हो जाती हैं? क्या मध्यस्था की भूमिका निभाने वाला देश अपने हित नहीं साधने लगता? क्या कोई भी दो देश अपने मामले खुद नहीं निपटा सकते? अमेरिका या कब तक दुनियां के पांच देश ग्लोबल वर्ल्ड का ठेका लेने वाले हैं ऐसे में ज़रूरी हैं कि हर देश की क्षेत्रीयता का सम्मान हो क्या दुनियां की दो ताकतवर धुरि पर ही देश नाचते रहने वाले हैं? आखिर क्यों अमेरिका की आर्थिक व सैन्य ताकत का डर सताने लगता हैं? भारतीय प्रधानमंत्री भी अमेरिकी दौरे पर पहुंच चुके हैं कई अहम मुद्दों चर्चा जारी हैं।
ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का अमेरिकी यात्रा और तुर्की के राष्ट्रपति की पाकिस्तान यात्रा कई मामलो में और भी सवाल खड़े करती हैं, नाटो के दो सबसे ताकतवर देश का साऊथ एशिया को लेकर हलचल क्या नई राजनीति की सुगबुहाट हैं। फिलहाल चीन की विस्तारवादी सोच में किसी भी तरह की कमी नहीं नज़र आती हैं और अमेरिका भी कुछ उसी तरह की सोच को नए तरीके से आज़माइश फरमाता दिख रहा और शेख हसीना का समय समय पर भारत में मौजूदगी दर्ज कराना नई बांग्लादेशी सरकार को भारत के लिए नाराज़गी की ओर खींचता ले जा रहा है। हमेशा की तरह हमारे पास प्रश्न अधिक हैं और केवल प्रश्न ही हैं क्या हैं इन सवालों के जवाब?