क्या उद्धव ठाकरे की शिव सेना समाप्ति की कगार पर हैं? क्या बटेंगे की राजनीति में बीजेपी को सफलता मिली? यूपी में 2027 का ताज कौन पहनेंगा? दिल्ली की विधानसभा किसके पाले में जायेगी? क्या ईवीएम फिर कटघरे में? अब इसी तरह के सवाल हर राजनीतिक विश्लेषक के लिए दूर की कड़ी बनते जा रहे हैं।

सवाल यह हैं कि 2024 में बनी एनडीए सरकार को विपक्ष द्वारा कमज़ोर सरकार का ठप्पा दिया जाने के बाद जनता का कितना विश्वास बचा हैं। रोज़ सरकार के गिरने का दावा करने वाली विपक्षी गठबंधन पर कहीं जनता का विश्वास कमज़ोर तो नहीं हो रहा। महाराष्ट्र नतीजो के बाद कितना आसान होने वाला हैं विपक्षी गठबंधन के लिए जनता को विश्वास दिलाने कि वह आगे मज़बूत भूमिका में नज़र आएंगी। इस तरह के तमाम सवाल का जवाब अब दूर की कड़ी नज़र आते है। फिलहाल महाराष्ट्र में एनडीए गठबंधन के फिर सत्ता पर काबिज़ होने के बाद ईवीएम का मुद्दा ज़ोर पकड़ने लगा हैं। वही झारखण्ड में एक बार फिर हेमंत सोरेन ने सत्ता पर काबिज़ होकर क्षेत्रीय पार्टी की वर्चस्वता बनाये रखा हैं। वही बटेंगे तो कटेंगे का नारा देने वाले यूपी के मुखिया ने उपचुनाव में विपक्ष को नए सिरे से सोचने को मज़बूर कर दिया है।
कहीं बदलाव की राजनीति में केवल कांग्रेस तो नहीं: चलिए आगे बढ़ते है, कुछ और सवालों को समझने की कोशिश करेंगे। लोकसभा 2024 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के अच्छे प्रदर्शन के बाद विधानसभा उपचुनाव में शिकस्त हर किसी को एक नए सवाल पर ले जाती हैं, ऐसा कैसे? ऐसा क्यों या क्या हैं वज़ह? कहीं समाजवादी पार्टी के ख़राब प्रदर्शन का कारण कांग्रेस तो नहीं राजनीतिक जानकार इस ओर भी जाते हैं कि कांग्रेस को एक भी सीट नहीं दिया जाना भी बड़ी हार की वज़ह बन सकती हैं। क्या जनता देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से ही बदलाव चाहती हैं। पर एक बात तो साफ हो चली हैं, लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव में जनता का बदलाव नहीं होता पर वोट अलग अलग नज़रिया से ज़रूर दिए जाते हैं, फिलहाल आगे बढ़ते हैं।
2019 की विधानसभा में 56 सीटों के साथ विधानसभा में बैठने व 2024 में जीत का दावा करने वाली उद्धव ठाकरे की शिवसेना महज 20 सीट पर ही सिमटी, वहीं एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 57 सीट पर विजय दर्ज की। आखिर उद्धव ठाकरे को मिली करारी शिकस्त की वजह क्या है? कहीं मुस्लिमों से करीबी उद्धव की शिवसेना की बड़ी हार की वजह तो नहीं? या जनता को शिंदे की शिवसेना पर ज्यादा विश्वास तो नहीं, वजह जो भी हो ईवीएम एक बार फिर कटघरे में हैं।
कुर्सी पर देवेंद्र फण्डवीस का विराजमान: फिलहाल महाराष्ट्र की कुर्सी पर देवेंद्र फण्डवीस विराजमान हो चुके हैं, ऐसे में सवाल यह है कि हालही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा दिए हुए बटेंगे तो कटेगे का नारा कितना कारगर सिद्ध हुआ। महाराष्ट्र में बीजेपी की सीट में बढ़त का श्रेय क्या योगी आदित्यनाथ को दिया जा सकता हैं। अगर दिया जा सकता हैं तो झारखण्ड में हार का श्रेय कौन लेगा? पर जो भी हो महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में आरएसएस की सक्रिय भागीदारी और बीजेपी की शानदार जीत ने सभी को चौंका दिया हैं। ऐसा माना जा रहा हैं इस चुनाव में कहीं न कहीं आरएसएस ने चुनाव प्रचार की कमान अपने हाथ में ले ली थी। क्या इस भागीदारी को जीत की असल वजह माना जाना चाहिए? फिलहाल कुछ सवालों की ओर बढ़ते हैं।
क्या हैं शिवसेना उद्धवगुट के पिछड़ने की वजह : अगर महाराष्ट्र की राजनीति पर धयान दें तो एक दौर ऐसा था जब शिवसेना अपने दबदबे के लिए जानी जाती थी। यह बात भी सच है कि शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने कभी चुनाव नहीं लड़ा लेकिन कहीं न कहीं हिंदुत्व की राजनीति के चलते उनकी लोकप्रियता न केवल मुंबई बल्कि महाराष्ट्र के बाहर भी अपने प्रभाव के लिए थी। साल 2019 में बीजेपी का साथ छोड़ कांग्रेस और एनसीपी का हाथ थामने वाली उद्धव ठाकरे की शिवसेना के कट्टर हिंदुत्व वाली छवि को बदल एक नए प्रयास की ओर जाने वाले इस गुट को आज 2024 के नतीजों के बाद नए सिरे से विचार करने की ज़रूरत आ पड़ी हैं।
क्या विपक्ष फिर लेता ईवीएम की आड़ : ऐसे में अब एक बार फिर ईवीएम पर चर्चा ज़ोर देकर विपक्ष आड़ लेता दिखाई पड़ रहा है ऐसे में सवाल फिर इस ओर इशारा करता है कि चुनाव से पहले बड़े दावे को अपना हथियार बनाने वाली राजनीतिक पार्टियां अपना भविष्य किस ओर देखती हैं ऐसे में कई पार्टियों के अस्तित्व का खतरा भी मंडराने लगा हैं, क्या विपक्ष को नए रणनीत की ज़रुरत हैं, क्या 2029 चुनाव पर विपक्ष की मज़बूत दावेदारी होंगी?
कम सीटों पर सिमटने वाली उद्धव की शिवसेना के लिए कितना मुश्किल होने वाला हैं आगे का चुनाव क्या महाराष्ट्र में शिवसेना की राजनीति पर विराम लगेगा। फिलहाल दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीखो का ऐलान होने वाला हैं, जेल से बाहर आये पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस बात पर पूरा जोर देंगे कि वह जनता के लिए जेल में रहे। सवाल यह हैं कि दिल्ली विधानसभा में बीजेपी व कांग्रेस का सामना करने वाली आम आदमी पार्टी के लिए कितना आसान होगा यह चुनाव।
विपक्ष की राजनीति: एनडीए के विरुद्ध विचार का प्रसार करने की उम्मीद में खड़े विपक्ष को हर रणनीति को इस तरह तैयार करना होगा या इस बात को मान कर तैयारी करनी होगी कि एनडीए की रणनीति हर उस काम के लिए है जो उसे लोकसभा की सत्ता की ओर ले जाये, इसलिए किसी भी विधानसभा से ज़रूरी हो जाती हैं लोकसभा का चुनाव। फिलहाल लोकसभा 2024 के नतीजे में अहम भूमिका निभाने वाली समाजवादी पार्टी के उपचुनाव में महज दो सीटों पर सिमटने का कारण क्या हैं? यूपी के उपचुनाव में ऐसा क्या हुआ जो निराशा हाथ लगी फिलहाल इसका जवाब भी जनता के ही पास है। देखना यह होगा कि केजरीवाल ने महाराष्ट्र चुनाव व यूपी के उपचुनाव से कोई सीख ली हैं और अगर ली हैं तो क्या ज़मीनी तौर पर उतारने के लिए कारगर साबित होंगे।