किसी भी देश की आर्थिक गतिविधि चलाने में उस देश की जनता व उत्पादन के साधनों की मजबूत भागीदारी मानी जाती है, क्योंकि संसाधनो के माध्यम से किये गये उत्पादन में मांग की कमी के कारण किसी भी देश को आर्थिक नुकसान या आर्थिक हानि या यूं कहे किसी भी देश को आर्थिक मंदी तक का भी सामना करना पड़ सकता है।
कहते है न किसी भी देश को उसकी ताकत का आकलन उसकी आर्थिक गति या विश्व में उसकी आर्थिक भागीदारी कितनी है के द्वारा किया जाता है, किसी भी देश की आर्थिक गतिविधि चलाने में उस देश की जनता व उत्पादन के साधनों की मजबूत भागीदारी मानी जाती है, क्योंकि संसाधनो के माध्यम से किये गये उत्पादन में मांग की कमी के कारण किसी भी देश को आर्थिक नुकसान या आर्थिक हानि या यूं कहे किसी भी देश को आर्थिक मंदी तक का भी सामना करना पड़ सकता है। चलिए समझते हैं, क्या है मुद्रास्फीति जिसके चढ़ने से एक शक्तिशाली व मजबूत सरकार को भी जनता द्वारा बाहर का रास्ता दिखाना पड़ सकता है।
क्या है मुद्रास्फीति : चलिए समझते हैं, सामान्य भाषा में कीमतों के सामान्य स्तर में बढ़ोतरी, कीमतों के सामान्य स्तर में सतत वृद्धि या कीमतों के सामान्य स्तर में लगातार बढ़ोतरी हो रही हो और ये क्रिया सभी वस्तुओं के साथ हो रही हो, ध्यान रखने वाली बात यह है कि इसमें सभी वस्तुओं के दाम बढ़ने चाहिए। अगर इसी को उलटा रख कर समझे तो दामों के सामान्य स्तर में कुछ समय से गिरावटा आ रही हो तो इसे अवस्फीति कहते हैं। किसी भी वस्तु की मांग और उसकी आपूर्ति के बीच असंतुलन की वजह से दाम बढ़ जाते हैं। यानी की अगर किसी भी वस्तु की मांग ज्यादा है, और वह वस्तु मात्रा में कम है, तो उस वस्तु की कीमत बढ़ जायेगी, हालांकि बहुत से विशेषज्ञ मानते है कि आय पर कर लगा कर इस पर काबू पाया जा सकता है, जिससे कि लोगो के पास से उनकी खरीदने की ताकत को कम करके पूरा किया जा सकता है या दूसरा रास्ता उस वस्तु का आयात कर लिया जाये, जिसकी मात्रा कम होने के कारण उसकी मांग बढ़ गयी थी, और उस वस्तु के दाम भी बढ़ गये थे।
अगर लागत जनित मुद्रास्फीति की बात करे तो वस्तुओं को बनाने में मजदूरी व कच्चा माल जब बढ़ जाते है, तो वस्तुओं के दाम भी बढ़ जाते है, इस तरह की महंगाई को कम करने व आम नागरिक को महंगाई के बोझ से बचाने लिए सरकारो को कच्चे माल पर एक्साइज व कस्टम शुल्क में कमी और मजदूरी के नियमों में संशोधन करना पड़ता है, जिससे वस्तु की कीमतों को कम करने के साथ सरकारों द्वारा जनता के आर्थिक बोझ को कम किया जा सके व सरकार की झमता का आकलन भी इन्ही सब के माध्यम से किया जाता है।
किन क्षेत्रों में असर : अगर ध्यान से नजर दौड़ाई जाय, तो अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति के बहुपक्षीय का असर देखने को मिलता हैं, वो चाहें माइक्रो हो या मैक्रो दोनो ही स्तरों पर इसका असर देखा जाता रहा है, जैसे-रोजगार, कर, बचत, निवेश को पूरी तरह से स्थिर कर देती है। एक उदाहरण के माध्यम से इसको आसानी से समझा जा सकता है, आसान भाषा में उधार देने वाले को इसका नुकसान होता है, और मुद्रास्फीति से उधार लेने वाले को इसका फायदा मिलता है, कैसे इसको भी समझते है, उधार देने वाला उधार देते समय उन पैसो से जितना सामान ले सकता था, उतना वह मुद्रास्फीति हो जाने के बाद उन पैसो से नही ले सकता, क्योकि पैसो की वैल्यू या तो गिर चुकी होगी या वस्तु की कीमत बढ़ चुकी होगी, जिसे वह लेने वाला था। इसी तरह का असर अन्य क्षेत्रों पर भी मुद्रास्फीति का देखा जा सकता है।
भारत में मुद्रस्फीति का मापन : अगर भारत में मुद्रस्फीति की गणना की बात करें तो इसे मुख्यता दो मूल्य सूचियों के आधार पर करता है, पहला थोक मूल्य सूचकांक, जिसका उपयोग जहां मैक्रो लेवल पर नीतियां बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, थोक मूल्य सूचकांक में कुछ वस्तुओं को शामिल कर एक औसत वस्तुओं के मूल्य के आधार पर तय किया जाता है, दूसरा मुद्रास्फीति का मापन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की सहायता से करते है, एक अकेला उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अब तक संभव नहीं हो पाया है, जो भारत के सभी उपभोक्ताओं को अपने में समेट ले और उनके आधार पर वस्तुओं के मूल्य का आकलन करें, फिलहाल उपभोक्ता मूल्य सूचकांक तो चार भागो में विभाजित हैं, जिसके माध्यम से अलग-अलग भागो में बांटी की गई वस्तुओं के माध्यम से इसको निर्धारित करते हैं, जैसे-सीपीआई-आईडब्ल्यू,यूएनएमई, एएल, आरएल।
बात उस महामंदी की : अब बात उस महामंदी की कर लेते है, जिसने विश्व की कई सरकारो को तोड़ दिया जी हां अब बात 1929 की वैश्विक मंदी की जिसने मांग बेहद निचले स्तर पर पहुंचा दिया, रोजगार के अवसर को पूरी तरह से खत्म कर दिया व बेरोजगारी तो बढ़ाती चली गयी और अगर किसी को अपना कारोबार जारी रखना है, तो कर्मचारियों की छटनी भी करनी पड़ी इस महामंदी ने विश्व के सभी देशों को सचेत किया कि मंदी के बहुत बुरे परिणाम हो सकते हैं।
भारत में आर्थिक मंदी : आजादी के बाद समय-समय पर आर्थिक मंदी देखी गई आईये कुछ उदाहरण कें माध्यम से इसको आसानी से समझने की कोशिश करते है, अगर रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के जी0डी0पी0 ग्रोथ के आंकड़े देखे तो भारत में आर्थिक मंदी चार बार 1958, 1966, 1973, 1980 में आई, अगर इसमें से 1973 की मंदी की बात करे तो अरब देशों के तेल संगठन ओपेक ने तमाम देशों के तेल निर्यात करने पर रोक लगा दी थी, जिसके चलते विश्व में तेल की कीमतों में भारी मात्रा में उछाल आया और साथ ही साथ अन्य वस्तुओं के दामों में भी उछाल आया, इसका असर अधिकतर देशों में पड़ा व भारत को भी मंदी की चपेट में ले लिया। सरकारो द्वारा शुरू से ही मुद्रस्फीति नियंत्रण के लिए कदम उठाये जाते रहे हैं, जैसे कि जमाखोरी एंव काला बाजार पर रोक, खाद्य सामग्रियों की बेहतरी के लिए अधिकतम एमएसपी, दलहन के बफर स्टॉक को बढ़ाना जैसे उपाय समय-समय पर किये जाते रहे हैं, जिससे जरूरी जगहों पर वस्तुओं की आपूर्ति समय-समय पर पूरी की जा सके, साथ ही साथ बताते चले ग्लोबल रेटिंग एजेंसी एसएंडपी द्वारा अनुमान जताया गया है, कि भारत 2030 तक आसानी से दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी, उसे यह लक्ष्य हासिल करने में ज्यादा दिक्कत नहीं आने वाली साथ ही साथ यह भी बताया है कि आर्थिक विकास दर 2026-27 में यह 7 फीसदी तक पहुंच जाएगी, और एक मजबूत अर्थव्यवस्था बनाने का रास्ता भी खुलेगा, जिससे आने वाले समय में भारतीय अर्थव्यवस्था एक मजबूत आर्थिक ताकत बन कर उभरेगी।