अनुच्छेद-19 द्वारा प्रदत्त अधिकार केवल ‘भारतीय नागरिकों को ही प्राप्त हैं और ‘नागरिक’ शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इसमें प्रदत्त स्वतन्त्रताएँ केवल भारत के नागरिकों को ही उपलब्ध हैं, किसी विदेशी नागरिक को नहीं है। उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ आत्यन्तिक (absolute) नहीं हैं।
दुनिया में हर व्यक्ति को स्वतन्त्रता देना हर देश का प्राथमिक कर्तव्य होता है और हो भी क्यों न यह एक नैसर्मिक न्याय की प्रणाली पर आधारित होता है, फिर चाहे स्वतन्त्रता सामाजिक हो या राजनैतिक, किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता में वैयक्तिक स्वतन्त्रता के अधिकार का स्थान मूल अधिकारों में सर्वोच्च माना जाता है। वैसे तो दुनिया के सभी आधुनिक संविधानों में मूल अधिकारों का उल्लेख रहता है और रहना भी चाहिए, चलिए समझते हैं हमारे भारतीय संविधान की स्वतन्त्रता को हमारे संविधान के अध्याय- 3 को भारत का अधिकार-पत्र कहा जाता है। तभी भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद- 12 से 35 तक सबसे महत्वपूर्ण माने जाते है, क्योकि यह मूल अधिकारो को बताता हैं और यह मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिये गये है, समझने वाली बात यह है कि इन अधिकारो में स्वतन्त्रता का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योकि यह अधिकार किसी भी देश को लोकतान्त्रिक देश बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
क्या है स्वतन्त्रता? :व्यक्ति के विधिक स्वतन्त्रता से आशय उन लाभों से है, जो वह स्वयं पर विधिक कर्तव्यों के अधिरोपण के अभाव में प्राप्त करता है। स्वतन्त्रता के अधीन कोई व्यक्ति अपने कार्य को अपनी इच्छानुसार बिना विधि की रोक-टोक के कर सकता है, किन्तु वह दूसरे के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। चलिए उदाहरण से समझते हैं, यदि किसी व्यक्ति को अपने विचार अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता है, तो उसे यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह अपमानजनक लेख या अपमानजनक-वचन द्वारा दूसरे व्यक्ति को हानि पहुँचाए। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को हिंसा के विरुद्ध अपनी रक्षा करने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु कोई व्यक्ति उसे क्षति पहुँचाता है उससे बदला लेने का अधिकार उसे नहीं है।
स्वतन्त्रता पर जे.एस. मिल के विचार :मिल ने जिस स्वतन्त्रता की बात की है, वह एक व्यापक स्वतन्त्रता है। ‘ऑन लिबर्टी’ में स्वतन्त्रता के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए मिल ने लिखा है कि मानव जाति किसी भी घटक की स्वतन्त्रता में केवल एक आधार पर ही हस्तक्षेप कर सकती है और वह है, आत्मरक्षा। सभ्य समाज के किसी भी सदस्य के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग केवल इसी उद्देश्य के लिए हो सकता है कि उसे दूसरों को हानि पहुँचाने से रोका जाए। उसका अपना भौतिक या नैतिक हित इसका पर्याप्त औचित्य नहीं है। किसी भी व्यक्ति को कोई काम करने या न करने के लिए विवश करना इस आधार पर उचित नहीं माना जा सकता कि ऐसा करना उस व्यक्ति के हित में है या ऐसा करने से उसके हित में वृद्धि होगी या ऐसा करना बुद्धिमत्तापूर्ण है। “समाज मानव के आचरण के केवल उसी अंश को नियन्त्रित कर सकता है जो दूसरे व्यक्तियों से सम्बन्धित हो। स्वयं अपने ही कार्यों में उसकी स्वतन्त्रता अधिकारत: निरपेक्ष है।”
आगे मिल कहते है कि विचार एवं भाषण की स्वतन्त्रता मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इससे अधिकतम मनुष्यों को केवल अधिकतम सुख की अनुभूति ही नहीं होती, बल्कि इसके द्वारा सत्य की खोज भी की जा सकती है। इस राजनीतिक स्वतन्त्रता से उच्च नैतिक स्वतन्त्रता का जन्म होता है। सार्वजनिक प्रश्नों पर उन्मुक्त चर्चा हो, राजनीतिक निर्णयों में उनका हाथ हो, नैतिक विश्वास हो और उस नैतिक विश्वास को कार्यान्वित करने के लिए उत्तरदायित्व का भाव हो जब ये बातें होती हैं, तभी विवेकशील मनुष्यों का जन्म होता है। इस तरह का चरित्र-निर्माण सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं है कि उससे किसी स्वार्थ की पूर्ति होती है वह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वह मानवोचित है, क्योंकि वह सभ्य है। “यदि यह अनुभूति हो जाए कि व्यक्तित्व का स्वतन्त्र विकास कल्याण की एक प्रमुख शर्त है तथा यह सभ्यता, शिक्षा और संस्कृति का सहयोगी तत्त्व ही नहीं वरन् इन सब का एक आवश्यक अंग भी है तो स्वतन्त्रता की कम कीमत आँकने का कोई खतरा नहीं रहेगा।”
हमारे संविधान में स्वतन्त्रता :इसीलिए संविधान विशेषज्ञो ने संविधान बनाते समय स्वतन्त्रता के अधिकार को सर्वोच्च रखा क्योकि इनके अभाव में मनुष्य के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करना या जीवन का विकास करना संभव नहीं है। संविधान के अनुच्छेद-19 से 22 तक में भारत नागरिकों को स्वतन्त्रता सम्बन्धी विभिन्न अधिकार प्रदान किये गये हैं। उक्त अनुच्छेद दैहिक स्वतन्त्रता अधिकारपत्र-स्वरूप हैं। उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ मूल अधिकारों की आधार-स्तम्भ मानी जाती हैं। इनमें छह मूलभूत स्वतन्त्रताओं का स्थान सर्वप्रमुख है। अनुच्छेद- 19 भारत के सब ‘नागरिकों’ को निम्नलिखित छह स्वतन्त्रताएँ प्रदान करता है, जैसे – वाक्य स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता, शान्तिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता, संगम या संघ बनाने की स्वतन्त्रता, भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता, भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतन्त्रता, कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतन्त्रता। ध्यान देने वाली बात यह है कि अनुच्छेद-19 द्वारा प्रदत्त अधिकार केवल ‘भारतीय नागरिकों को ही प्राप्त हैं और ‘नागरिक’ शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इसमें प्रदत्त स्वतन्त्रताएँ केवल भारत के नागरिकों को ही उपलब्ध हैं, किसी विदेशी नागरिक को नहीं है। उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ आत्यन्तिक (absolute) नहीं हैं। किसी भी देश में नागरिकों के अधिकार असीमित नहीं हो सकते कि वह किसी भी अन्य व्यक्ति को नुकसान पहुंचाये या सामाजिक बुराईयों को जन्म दे। किसी भी देश में एक व्यवस्थित समाज बनाने के लिए अधिकारों का अस्तित्व होता है और नागरिकों को ऐसे अधिकार नहीं प्रदान किये जा सकते जो समस्त समुदाय के लिये अहितकर या हानि पहुंचाते हों। यदि व्यक्तियों के अधिकारों पर समाज अंकुश न लगाये तो उसका परिणाम विनाशकारी होगा। स्वतन्त्रता का अस्तित्व तभी सम्भव है जब वह विधि द्वारा संयमित हो। अपने अधिकारों के प्रयोग में हम दूसरों के अधिकारों पर आघात नहीं पहुँचा सकते हैं। इसीलिए हमारे संविधान में अधिकारों पर निर्बन्धन लगाने की उचित व्यवस्था की गयी हैं।
क्या हुआ था ए. के. गोपालन के मामले में- न्यायाधिपति श्री पतंजलि शास्त्री ने यह अवलोकन किया है कि “मनुष्य एक विचारशील प्राणी होने के नाते बहुत-सी चीजों के करने की इच्छा करता है, लेकिन एक नागरिक समाज में उसे अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित करना पड़ता है और दूसरों का आदर करना पड़ता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 19 के खण्ड (2) से (6) के अधीन राज्य को भारत की प्रभुता और अखण्डता की सुरक्षा, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार आदि के हितों की रक्षा के लिए निर्बन्धन लगाने की शक्ति प्रदान की गयी है, किन्तु शर्त यह है कि निर्बन्धन युक्तियुक्त हो।
कितना निर्बन्धन – कहने का आश्य यह है कि राज्य को भारत की प्रभुता, अखण्डता की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार आदि के हितों की रक्षा के लिए निर्बन्धन लगाने की शक्ति प्रदान की गयी है। अब यह प्रश्न उठता है कि युक्तियुक्त निर्बन्धन क्या है। और यह शब्द न्यायालयों के पुनर्विलोकन की शक्ति को अत्यन्त विस्तृत कर देती है। किन्तु निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता को जाँचने के लिए कोई निश्चित कसौटी नहीं है। इस बात का निर्णय प्रत्येक मामले के तथ्यो और परिस्थितियों के आधार पर ही किया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने कुछ सामान्य नियम स्थापित किये है, जिनके आधार पर निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता की जांच की जाती है। इसी के आधार पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते है, कोई निर्बन्धन युक्तियुक्त है या नहीं, इस प्रश्न का अन्तिम निर्णय देने की शक्ति न्यायालयों को है, विधानमण्डल को नहीं। यदि देखा जाय तो यह नियम एक नैतिक विधि पर आधारित है क्योकि हमारा नैतिक जीवन भी सामाजिक न्याय पर आधारित है, हम सामाज में रहने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सकते चाहे वह सामाजिक हो या आर्थिक, किसी भी कानून में कितनी भी स्वतन्त्रता क्यो न हो, यह हमारा एक नैतिक कर्तव्य भी बनता है कि सामाजिक न्याय के मूलभूत ढांचे को बनाये रखा जाये, ईश्वर ने भी हमे इतनी स्वतनत्रता नहीं दी है कि हम किसी भी नागरिक को नुकसान पहुंचाये, इसी प्रकार भारतीय संविधान ने भी स्वतनत्रता का अधिकार इतना नहीं दिया है कि कोई भी दूसरो के अधिकारो का हनन करें या दूसरों अधिकारों को हानि पहुंचाए, फिर चाहे वह अधिकार कितने ही बडे व प्रभावशाली ही क्यो न हो।