नम्बरवन बनने की खीतातानी को लेकर साऊथ एशिया अस्थिरता की ओर चल पड़ा हैं, हालही में इन क्षेत्रों से लगी कई सरकारों को अस्थिरता का सामना करना पड़ा हैं फिर चाहें श्रीलंका की सरकार हों या बांग्लादेश की पर सवाल यह हैं कि क्या यह अस्थिरता के पीछे अमेरिका व चीन हैं? क्योंकि वर्चस्वता की यह लड़ाई विश्व को किस ओर ले जायेगी कुछ कहा नहीं जा सकता।
कई देश में हुआ तख्तापलट: इमरान खान की चीन की नज़दीकियों की खबरों के बीच चुनी हुई पाकिस्तान की सरकार में तख्तापलट हो गया, फिर चाहे यह अविश्वास प्रस्ताव के जरिए ही क्यों न इमरान खान को हटाया गया हो। बताया यह जाता रहा हैं कि इन सब के पीछे बाइडन प्रशासन की नाराज़गी ही थी। ऐसा ही कुछ हाल टूरिज्म पर अपना गुजर बसर करने वाली अर्थव्यवस्था श्रीलंका का भी रहा, जहां की इकोनॉमी धीरे- धीरे चौपट होने की तरफ बढ़ने लगी और सबकुछ खत्म सा हो गया। जी हां जहां जनता रोटी के लिए तरसने लगी और मजबूर होकर सड़कों पर उतर आई। जिस कारण गोटाबाया राजपक्षे को अपनी कुर्सी छोड़कर भागना पड़ा और देश में आपातकाल की स्थिति बनी जहां कर्फ्यू लगा दिया गया। जाना माना हंबनटोटा बंदरगाह को श्रीलंका सरकार द्वारा 2017 में चीन के स्वामित्व वाली कंपनी को 1.12 अरब अमेरिकी डॉलर में 99 साल के पट्टे पर सौंप दिया था। चीन के इस बंदरगाह पर कब्जे के बाद से अमेरिका की चिंता बढ़ गई थी। लेकिन श्रीलंका कहता रहा है कि उसने बंदरगाहों का इस्तेमाल सैन्य उद्देश्य के लिए नहीं दिया। हालाकि म्यांमार में हुए सैन्य तख्तापलट जिसने क्षेत्र में और भी अस्थिरता को बढ़वा दिया, हालाकि अमेरिका ने सैन्य तख्तापलट किये जाने की अपनी चिंता भी व्यक्ति की लेकिन बता दे म्यांमार सेना के साथ पहले से ही भारत के बेहतर संबंध माने जाते रहे हैं।
लोकतांत्रिक तरीके से चुनावी प्रक्रिया के जरिए चौथी बार चुनकर बांग्लादेश की सत्ता पर काबिज होने वाली बांग्लादेशी प्रधानमंत्री के खिलाफ आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन इतना बढ़ा कि शेख हसीना को अपनी सत्ता छोड़कर देश से भागना पड़ा। तमाम राजनीतिक विशेषज्ञों द्वारा कयास यह लगाया जा रहा कि अमेरिका ने बांग्लादेश में एयरबेस के लिए जमीन मांगी थी, लेकिन शेख हसीना ने इससे इनकार कर दिया था। अमेरिका इससे नाराज था और वह चाहता था कि हसीना बांग्लादेश का चुनाव हार जाएं। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं और अमेरिका की नाराज़गी का सामना भी बांग्लादेश को करना पड़ा। भारत के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने के साथ चीन से भी शेख हसीना के संबंध कई मायनों में अच्छे हो चले थे, फिर भी कुछ मामलो को लेकर चीन की तरफ से भी बांग्लादेश पर नाराज़गी जताई जा रही थी। जिसका अंजाम सत्तापरिवर्तन माना जा रहा हैं।
“चीन और अमेरिका दोनों ही अपने प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश मे लगे रहते हैं। अमेरिका ने ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश मे अपनी रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा दिया हैं, ज़बकि चीन ने हाल के वर्षो मे श्रीलंका, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश मे निवेश और क़र्ज़ के माध्यम से प्रभाव बढ़ाया हैं”
दीपांकुर सक्सेना, पत्रकार, NBT लखनऊ
क्या विश्व राजनीति में परिर्वतन का समय: जिस तरह से अमेरिका विश्व राजनीति में आक्रमक सा दिखाई देता हैं, उससे एक बात तो साफ हो चली है, उसे नम्बरवन का टैग खो जाने का डर सता रहा हैं और डर इस बात का भी हैं कि कहीं रूस की ओर नाचने वाली धुरि चीन की तरफ बदलाव की ओर तो नहीं, कहीं रूस की जगह चीन तो नहीं लेने वाला हैं। क्योंकि पिछले 10 साल में चीन की जिस तरह से कई देशों में दखलअन्दाज़ी बढ़ी हैं, वह एक चिन्ता का विषय हैं। यह चिन्ता का विषय जितना अमेरिका के लिए हैं उससे कहीं ज्यादा भारत के लिए भी हैं। चाहें पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के चीन के साथ सम्बन्ध हो या शेख हसीना की अमेरिका से दूरियां किसी से छिपी नहीं हैं और अमेरिका का किसी भी देश को माफी देने का इरादा नज़र नहीं आता और वह सत्तापरिवर्तन के रूप में दिखाई देता हैं। ड्रैगन की चाल ने एक बार फिर इस बात का इशारा दे दिया हैं कि विश्व की धुरि में वह रूस को जल्द कोसो दूर छोड़ने वाला है, जो कि भारत के साथ साऊथ एशिया में कई देशों के लिए चुनौती खड़ा करेगा।
क्या पड़ेगा भारत के राजनीतिक व आर्थिक मुद्दों पर असर: बांग्लादेश हो या श्रीलंका भारत के हर मायनों में इन देशों से सम्बन्ध अच्छे रहे हैं। शेख हसीना के कार्यकाल में भारत के सम्बन्ध बांग्लादेश से कहीं न कहीं एक महत्वपूर्ण भूमिका में नज़र आते हैं। चीन द्वारा भौगोलिक व राजनीतिक रूप से जिस तरह से भारत का घिराव किया जा रहा था, बांग्लादेश ने भारत के साथ अपने सम्बन्धों को मज़बूत करने पर ही ध्यान दिया, फिर चाहें श्रीलंका की आर्थिक तंगी के बीच भारत द्वारा कई बार मदद कर यह साबित किया गया कि भारत हर मुद्दों पर श्रीलंका के साथ खड़ा हैं। राजनीतिक हो या आर्थिक अगर पड़ोसी देश पर किसी भी तरह की क्राईसिस होती हैं तो असर दूसरे देशों पर भी पड़ता हैं। फिर चाहें वह आयात निर्यात का मामला हों या अपनी इन्टरनेशनल राजनीति पर नए सिरे से विचार ही क्यों न करना पड़े।
अमेरिका की वर्चस्वता पर पड़ता असर: दूसरे विश्व युद्ध में विजय होने के बाद जिस तरह से अमेरिका ने अपनी वर्चस्वता का बोल बाला बनाया था, उसी के बाद से हर अन्तर्राष्ट्रीय संस्था में हस्तक्षेप व विश्व गुरू का ठप्पा लगाए अमेरिका को केवल रूस से चुनौती मिलती देखी जा सकती थी। दो महाशक्तियों के नम्बरवन की होड़ में धीरे-धीरे कई क्षेत्रीय शक्तियों ने भी जन्म ले लिया शक्तियों के जन्म से अमेरिका का नुकसान यह हुआ कि चीन जैसे देश सीधा आंख दिखाने लगें, कहीं यही कारण तो नहीं अमेंरिका अब क्षेत्रीय सरकारों को प्रभावित करने में लगा हुआ हैं?
“हर देश को दूसरे देश की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए। यह अंतराष्ट्रीय शान्ति और स्थिरता बनाये रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं, वैश्विक मंच पर क्षेत्रीय तनाव को कम करने के लिए बातचीत और कूटनीति का सहारा लेना चाहिए”
सिमरन खान, न्यूज़ एंकर, 4pm
क्या पांच देशों की धुरि को स्वीकार करेगी दुनियां: विश्व युद्ध के बाद दुनिया की हर सरकार अपने आपको स्थिर करने पर ध्यान लगाए हर देश हर उस बात पर सहमति बना बैठा जिससे सरकारों में स्थिरता आये। आज के समय में जब सभी महाद्वीप में क्षेत्रीय ताकतों ने जन्म लिया तो क्या उसका सम्मान नहीं होना चाहिए? यहीं वजह हैं कि अब यू.एन.एस.सी. जैसी संस्थाओं में सुधार की मांग उठने लगी हैं मौजूदा समय पर ध्यान दिया जाय तो अब स्थितियां 1945 वाली नहीं हैं। पचास सालों में बहुत से देशों ने अपनी क्षेत्रीयता को विकसित किया हैं, क्या उन क्षेत्रीय ताकत का सम्मान नहीं होना चाहिए या अभी भी विश्व पांच देशों द्वारा बताए गये रास्ते पर चलने के लिए कितना तैयार दिखता हैं, यह भी सोचने वाली बात हैं। इस सम्बन्ध में भारत द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मंच से सुरक्षा परिषद् में सुधार की वकालत की जाती रहीं हैं। जब क्षेत्रीय ताकत का जन्म होता हैं तो इसे हर देश को स्वीकार करने की जरूरत हैं। भारत जैसे देश ने पचास साल में अपनी क्षेत्रीयता को विकसित किया हैं, उसे भी सम्मान की जरूरत हैं। किसी देश की अस्थिरता के बीच आर्थिक गति उस देश की भी प्रभावित होती हैं जो उसके पड़ोस में स्थित हैं। अत: विश्व की ताकतों को यह समक्षने की जरूरत हैं कि केवल अपने हित के लिए क्षेत्रीयता व सरकारों को अस्थिर करने से बचे।