लोकतांत्रिक देश जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनि हुई सरकार द्वारा चलाये जाते है, इसीलिए जनता द्वारा चुने हुए पद के पास निर्णय की ताकत होती इन्ही सब आधारों पर हमारा संविधान भी आधारित है, अक्सर देखा जा रहा है कि केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियुक्त राज्यपाल और उसी राज्य में विपक्ष की किसी पार्टी द्वारा नियुक्त मुख्यमंत्री के बीच छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर अनबन की समस्या बनी रहती है, कहीं यह अनबन राजनैतिक तो नहीं या फिर जनता के बीच अपनी वाहवाही की होड़ है।
लोकतांत्रिक सरकारों के किसी भी देश के संविधान में सभी स्तम्भों की शक्तियां बंटी हुई होती हैं, और इसी तरह भारतीय संविधान में भी चाहें राष्ट्रपति हो या भारत का मुख्य न्यायाधीश सभी की शक्तियां बंटी हुई हैं। परन्तु कुछ राज्यों में लगातार देखा जा रहा है कि राज्यपाल व मुख्यमंत्री की खींचातानी थमने का नाम नहीं ले रही, इसके लिए कभी केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियुक्त राज्यपाल को दोषी ठहराया जाता है और कभी विपक्ष की पार्टियों से नियुक्त मुख्यमंत्री को दोषी ठहराया जाता है और इन्हीं सब खींचातानी के बीच जनता के उचित मुद्दे कहीं खो से जाते हैं, चलिए इसी बीच समझते हैं, भारतीय संविधान के उचित प्रावधानों को व किस तरह शक्तियों का विभाजन है।
संविधान में राज्यपाल की भूमिका : वैसे तो राज्य का सबसे सर्वोच्च पद राज्यपाल का होता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद-153 के अन्तर्गत राज्यपाल के पद का उपबन्ध किया गया है, जिसके अनुसार प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा या फिर दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल हो सकता है, ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है, परन्तु राज्यपाल द्वारा अपनी शक्तियों का उपयोग स्वयं या अपने मन्त्रीगण के माध्यम से किया जाता है, चलिए इसी बीच हम मुख्यमंत्री की भूमिका को भी समझने की कोशिश करेंगें।
संविधान में मुख्यमंत्री की नियुक्ति : मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है और वह इसके लिए अपनी मर्जी का मालिक नहीं होता, वह उसी को मुख्यमंत्री नियुक्ति कर सकता है, जिस पार्टी ने चुनाव के बाद बहुमत पा लिया हो और उसी बहुमत दल में से एक को नेता चुन लिया गया हो, क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और जनता की चुनि हुई पार्टी ही सरकार चलाती हैं और राज्यपाल की नियुक्ति प्रत्यक्ष जनता के वोटों से नहीं होती है, परन्तु सभी प्रकार के कार्य राज्यपाल के माध्यम से होते है और राज्यपाल सभी प्रकार के कार्य प्रत्यक्ष रूप से चुनि हुई मंत्रीपरिषद के सुझाव से करते है और यह सुझाव राज्यपाल के लिए बाध्य भी माने जाते हैं।
राज्य की विधानमण्डल : अगर राज्य की विधानमण्डल की बात करें तो भारतीय संविधान में बतायें गये प्रावधान के अनुसार विधानमण्डल का गठन राज्यपाल व दोनो सदनों (विधानसभा व विधान परिषद) से होता है, जिसका उपबन्ध अनुच्छेद-168 से 212 में दिया गया है, जानकारी के लिए बताते चले कि हर राज्य में विधान परिषद हो यह भी जरूरी नहीं, विधानमण्डल वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सरकारे चला करती हैं, इसके एक भी स्तम्भ के कमज़ोर होने से सरकारों का नियमित रूप से चलना मुश्किल भरा माना जाता है, जबकि ध्यान देने वाली बात यह है कि विधानमण्डल में बने विधानसभा का चुनाव प्रत्यक्ष जनता के मतों द्वारा होता है और लोकतंत्र में जनता के मत ही सर्वोच्च माने जाते है।
लोकतांत्रिक ढांचा : लोकतांत्रिक देश जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनि हुई सरकार द्वारा चलाये जाते है, इसीलिए जनता द्वारा चुने हुए पद के पास निर्णय की ताकत होती इन्ही सब आधारों पर हमारा संविधान भी आधारित है, अक्सर देखा जा रहा है कि केन्द्रीय सत्ता द्वारा नियुक्त राज्यपाल और उसी राज्य में विपक्ष की किसी पार्टी द्वारा नियुक्त मुख्यमंत्री के बीच छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर अनबन की समस्या बनी रहती है, कहीं यह अनबन राजनैतिक तो नहीं या फिर जनता के बीच अपनी वाहवाही की होड़ है।
विशेषज्ञों के अनुसार यह विवाद केवल राजनीतिक ही माना जाता है, क्योंकि यह विवाद केवल दो पार्टियों के अलग-अलग राज्यपाल व मुख्यमंत्री के होने से होता है, क्योंकि जिन राज्यों में एक ही पार्टी के राज्यपाल व मुख्यमंत्री हैं, वहां किसी भी मुद्दों पर विवाद न के बराबर देखने को मिलता है।
कितना जरूरी पद राज्यपाल : क्योंकि यहां पर जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनि हुई विधानसभा व मंत्रीपरिषद की अहमियत अधिक बढ़ जाती है, भारतीय संविधान का आधार स्तम्भ लोकतांत्रिक तरीकों से चुने पदों पर अधिक है, यदि कुछ अपवाद को छोड़ दे तो राज्यपाल केवल मूर्ति स्वरूप व फाईनल बिल पर हस्ताक्षर के लिए माना जाता है, कहने के लिए तो यह पद राज्य का सबसे सर्वोच्च है, पर संविधान के अनुसार सभी शक्तियों का उपयोग मंत्रीपरिषद द्वारा कर, सूचना दे दी जाती है, इसीलिए जब एक ही राज्य में दोनों पद अलग-अलग पार्टी से नियुक्त होते हैं, तो सही समन्वय न होने के कारण यह राजनैतिक लड़ाई बन कर फूट पड़ती है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि संविधानिक रूप से तो राज्यपाल का पद राज्य में सर्वोच्च है, पर जनता के लिए निर्णय लेने की शक्ति प्रत्यक्ष रूप से चुनि हुई मंत्रीपरिषद के पास ही है।
क्या है रास्ता? : संविधान के अनुसार जनता को ही सर्वोच्च माना गया हैं, राज्य के कोई भी कार्य जनता के हित के लिए हो सकते है, आपसी समन्वय न होने के कारण जनता को ही मुश्किल का सामना करना पड़ता है, इसलिए जनता के हित के लिए दोनो ही सर्वोच्च पदों को आपसी समन्वय बनाना बहुत जरूरी बन जाता है, और किसी भी कार्य में होड़ लेने या पहले करने की समस्या को दूर करना जरूरी बन जाता है।